विभिन्न चुनौतियों एवं बाधाओं से जूझ रहा है कॉटन टेक्सटाइल उद्योग
30-Jun-2025 04:19 PM

मुम्बई। कपास क्षेत्र की अर्थ व्यवस्था के विकास में लगातार आ रही गिरावट से नीति निर्माताओं तथा उद्योग व्यापार क्षेत्र के प्रतिनिधियों का चिंतित होता स्वाभाविक ही है।
दरअसल हाल के वर्षों में कॉटन उद्योग को अनेक चुनौतियों एवं समस्यायों से जूझना पड़ा है और इसका सिलसिला अभी जारी है। कपास के बिजाई क्षेत्र में कमी आई है। सिंचाई के लिए पानी का अभाव रहता है और जलवायु परिवर्तन तथा कीड़ों-रोगों के प्रकोप से फसल अक्सर प्रभावित होती रहती है।
राष्ट्रीय स्तर पर कपास का बिजाई क्षेत्र 125-130 लाख हेक्टेयर के बीच स्थिर रहता था जो 2024 में घटकर 113-114 लाख हेक्टेयर पर सिमट गया। इसी तरह कपास की औसत उपज दर घटती जा रही है और यह 500 किलो प्रति हेक्टेयर के शीर्ष स्तर से गिरकर 425 किलो प्रति हेक्टेयर रह गई है।
उद्योग समीक्षकों के अनुसार मात्रा एवं गुणवत्ता की दृष्टि से देश में कपास का उत्पादन अनिश्चित हो गया है। 2019-20 के सीजन में 360 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था जो 2024-25 तक आते-आते घटकर 294 लाख गांठ पर अटक गया।
कपास की प्रत्येक गांठ 170 किलो की होती है। इसके फलस्वरूप देश से रूई के निर्यात में भी गिरावट आ रही है। पिछले तीन वर्षों से निर्यात घट रहा है।
2024-25 के वर्तमान मार्केटिंग सीजन में भारत से रूई का जितना निर्यात होगा उससे अधिक मात्रा का भारत में आयात होने की संभावना है।
कपास की घरेलू मांग एवं खपत में पिछले कुछ वर्षों के दौरान अच्छी बढ़ोत्तरी हुई है क्योंकि देश में इसकी प्रोसेसिंग क्षमता बढ़ गई गई है लेकिन कॉटन उत्पादों का लागत खर्च ऊंचा होने से इसके निर्यात में अपेक्षित सुधार नहीं देखा जा रहा है।
कपास की मांग एवं आपूर्ति का फंडामेंटल जटिल होता जा रहा है। भारत एक समय रूई का दूसरा सबसे प्रमुख निर्यातक देश बन गया था मगर अब धीरे-धीरे नीचे फिसलने लगा है।
दूसरी ओर, विदेशों से रूई का आयात बढ़ता जा रहा है। किसानों को अधिक से अधिक उत्पादन के लिए प्रेरित- प्रोत्साहित करने हेतु सरकार कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बेतहाशा बढ़ोत्तरी कर रही है।
अगले सीजन के लिए लम्बे रेशे वाली कपास का समर्थन मूल्य बढ़ाकर 8110 रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित किया गया। इससे उद्योग पर दबाव बढ़ेगा।