मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों में कृषि के विकास पर जोर

25-Sep-2023 12:40 PM

रायपुर । हरित क्रांति के आरंभ होने के बाद देश के कई इलाकों में कृषि पैदावार तेजी से बढ़ने लगी और इसके साथ ही भारत ने केवल खाद्यान्न-उत्पादक में आत्मनिर्भर होने लगा बल्कि लोगों का जीवन स्तर भी ऊंचा होता गया।

लेकिन कृषि विकास की इस यात्रा में देश का यह मध्यवर्ती भाग पीछे रह गया जो जनजातीय बहुल इलाका था। यह सेन्ट्रल इंडिया ट्राईकल सीजन (सीआईटीआर) सबका ध्यान अपनी ओर खीँच रहा है क्योंकि वहां गरीबी और भुखमरी की समस्या गंभीर है।

पिछले अनेक वर्षों से वहां विकास की सिर्फ  बातें हो रही हैं मगर न तो राज्य सरकारों ने ज्यादा गंभीरता दिखाई और न ही केन्द्र सरकार की ओर से कोई ठोस पहल की गई। ऊपर सतह पर सरकार एवं प्राइवेट क्षेत्र द्वारा जो थोड़े-बहुत प्रयास हुए वे पर्याप्त नहीं थे और इसलिए वह क्षेत्र अब भी पिछड़ा हुआ ही है। 

सीआईटीआर घने जंगलों एवं आदिवासी- जनजातीय लोगों की सघनता के लिए जाना जाता है। वहां अनेक बहुमूल्य वनोपज एवं जड़ी बूटियों का भंडार है लेकिन कृषि फसलें का समुचित उत्पादन नहीं होता है।

उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक देश की लगभग 50 प्रतिशत जनजातीय आबादी इस क्षेत्र में रहती है जबकि देश का लगभग 30 प्रतिशत जंगल भी वहीँ हैं। प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होने के बावजूद वहां लोगों की औसत मासिक आमदनी 7000 से 8500 रुपए (करीब 100 डॉलर) ही है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर इसका औसत आंकड़ा 23,000 रुपए (करीब 300 डॉलर) के आसपास है। 

इस क्षेत्र में बागवानी फसलों और खासकर सब्जियों के विशाल उत्पादन की गुंजाईश है लेकिन देश के पश्चिमी एवं दक्षिणी प्रांतों से आवक का प्रवाह तेज होने से इस क्षेत्र के किसानों को अच्छे दाम पर अपनी सब्जियां बेचने में कठिनाई होती है।

वहां दलहन, तिलहन एवं मोटे अनाजों की खेती को बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है। जमीन उपजाऊ है और अच्छी बारिश भी होती है। यदि आधुनिक कृषि पद्धति अपने जाए तथा मंडियों तक उत्पाद की पहुंच सुनिश्चित की जाए तो न केवल क्षेत्र के लोगों का जीवन स्तर सुधर सकता है बल्कि दलहन एवं खाद्य तेलों के आयात पर देश की निर्भरता में भी कमी आ सकती है।